Saturday 17 December 2011



 माई के चरण :  कमल दल , जहां है स्‍वर्ग का वास

मेरी माई हमेशा से हमलोगों के दुख-सुख्‍ा में संग-साथ। जब कभी भी हमे उनकी जरूरत पड़ी, वे हमेशा हमलोग के साथ एक पांव पर खड़ी रही। लेकिन अब ये पांव सिर्फ उनकी याद दिलायेंगे। अब पता नही हम मंझधार में फंसेंगे तो हमे बचाकर किनारे तक कौन लायेगा। फिर भी विश्‍वास नही होता कि मां नही है तो हमलोग डूब जायेंगे। मां का शरीर ही तो नही है, माई तो मेरे रोम-रोम और आत्‍मा मे रची-बसी है। माई सशरीर थी तो बहुत याद करती थी लेकिन अब जब नही है तो प्रत्‍येक क्षण वह मेरे दिल-दिमाग में रची-बसी हुई है। न मैं कभी माई को भूली थी और न कभी रहती दुनिया तक भूलूंगी। आखिरकार मैं उनकी दुलरी बेटी जो थी और हमेशा रहूंगी। माई के चरणों में मेरा रोज-रोज शत-शत प्रणाम।

Friday 9 December 2011

कहानी

                                                                       राजा और बूढ़ी मां

      प्रतापगढ़ के राजा वीर प्रताप सिंह दरबार में फरियादियों की समस्‍याएं बड़े ही ध्‍यान से सुन रहे थे। हमेशा की तरह वे लोगों की समस्‍याओं का निदान भी करते चल रहे थे। एक-एक कर फरियादी खुशी
-खुशी सिर झुकाते राजा की जय-जयकार करते चले गये। जब दरबार का सारा काम निबट गया तब महाराज ने अपने महामंत्री से कहा,  ' क्‍यों न हम आज रसोई की ओर चलें , देखे तो सही आखिर वहां हमारे लिए जो भोजन पकाया जाता है वह कैसे तैयार होता है।'  
  'जी महाराज, अवश्‍य चला जाय। ' महामंत्री तत्‍परता से उठते हुए बोले। 
   रसोईघर के करीब पहुंचते ही व्‍यंजनों की खुशबू से राजा की भूख अचानक जाग गयी। यही हाल महामंत्री का भी था। दोनों एक-दूसरे की ओर देखकर हल्‍के से मुस्‍कुराए। रसोइये ने जब साक्षात महाराज को सामने देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना नही रहा । उसने झट से व्‍यंजन बड़े आदर के साथ राजा और महामंत्री के सामने प्रस्‍तुत किया। राजा ना नही कर सके। खाते-खाते राजा खिड़की के समीप चले गये। तभी उन्‍होंने देखा कि एक कृशकाय  वृद्धा लाठी  के सहारे रसोईघर की नाली के पास खड़ी कुछ निहार रही थी। थोड़ी देर बाद वह वहां से चली गई। राजा को बहुत आश्‍चर्य हुआ। 
    अगले दिन राजा फिर दरबार का काम खत्‍म कर रसोईघर की खड़की के पास खडे़ हो गये। वृद्धा फिर आयी, जब वह जाने लगी तो उन्‍होंने महामंत्री को इशारे से बुलाया और कहा, 'इस बूढ़ी अम्‍मा को दरबार मे हाजिर किया जाय।'
    महामंत्री सहमति में सिर हिलाकर बाहर चले गये।  थोड़ी देर बाद महाराज के सामने वृद्धा को लाया गया। महाराज ने पूछा, 'अम्‍मा, तुम कौन हो, कहां रहती हो, तुम्‍हारे घर मे कौन-कौन है ? मैं दो दिन से देख रहा हूं, तुम रसोई के पास थोड़ी देर खड़ी रहती हो , फिर चली जाती हो, क्‍यों ? क्‍या तुम्‍हे कुछ चाहिए ? '
  ' महाराज मैं अनाथ हूं, मेरा कोई ठिकाना नही  है। मेरी आपसे विनती है कि मेरे लिए अपने रसोईघर के पीछे एक झोपड़ी बनवा दे।'
  ' महामंत्री जी , आज ही बूढ़ी अम्‍मा के लिए रसोईघर के पीछे एक झोपड़ी बनवा दीजिए।'
     दो-तीन महीने बाद राजा को वृद्धा की याद आयी। उन्‍होंने महामंत्री से कहा, ' अरे मैं तो उस बूढ़ी अम्‍मा को बिल्‍कूल ही भूल गया। उनका क्‍या हाल-चाल है, पता ही नही चला। ऐसा करते है कि अभी चलकर उनसे मिल लेते है। '
   महामंत्री के साथ राजा वीर प्रताप सिंह रसोईघर के पिछवाड़े उस वृद्धा की झोपड़ी के सामने खड़े थे, तभी वृद्धा निकली। सामने महाराज को देखकर उसने झुककर प्रणाम किया। महाराज ने पूछा,  'तुम कौन हो ? यहां पर जिस बूढ़ी अम्‍मा के लिए यह झोपड़ी बनी थी, वह कहा है ? '
  ' महाराज, वह बूढ़ी अम्‍मा मैं ही हूं।'  
  ' परन्‍तु ऐसा कैसे हो सकता है ? कहां वह बीमार-सी कृशकाय वृद्धा और कहां आप, बिल्‍कुल स्‍वस्‍थ। आपको तो मैं पहचान ही नही पाया। आखिर ऐसा चमत्‍कार कैसे हो गया ? '  
  'महाराज, कोई चमत्‍कार नही हुआ है। बस , यह आपके रसोईघर के मांड़ का कमाल है। जब मैं यहां रहने आई तो जो मांड़ आपका रसोइया नाली मे बहा देता था, मैं उससे वह मांग कर पीने लगी। बस,  परिणाम आपके सामने है।'  
' बूढ़ी अम्‍मा, क्‍या वाकई मांड़ में इतना गुण है कि वह रोगी शरीर को निरोगी बना दे ? '    
' जी महाराज, चावल का सारा गुण तो मांड़ के अंदर ही होता है। आपका रसोइया मांड़ को व्‍यर्थ समझकर नाली में बहा देता था। यही देखकर मैंने आपसे यहां रहने की अनुमति मांगी थी। '
   ' अगर मांड़ में इतना गुण है तो फिर आज से मैं भी रोज मांड़ पिया करूंगा और साथ मे महामंत्री जी भी । क्‍यों महामंत्री जी, ठीक है ना! अम्‍मा आज से आप हमारे रसोईघर की प्रमुख होंगी। हमारे रसोईघर मे क्‍या और कैसे बनेगा यह आप तय करेंगी। जिससे कि भोजन का स्‍वाद और पौष्टिकता दोनों ही बनी रहे। '  इतना कहकर महाराज ने महामंत्री की ओर देखा। महामंत्री ने सिर झुकाकर स‍हमति जतायी। वृद्धा ने कृतज्ञता से हाथ जोड़कर दोनों को विदा किया।
   
                                                                                                           - सविता सिंह 

Wednesday 21 September 2011

लघुकथा

                                                                             परंपरा


' मां एक बात पूछूं बुरा तो नही मानोगी... तुम मेरे साथ क्‍यो नही चलती ? ' मानसी घर के प्रतिकुल माहौल पर नजर फिराती रही।
             ' कहां, कहां चलूं... तुम्‍हारेसाथ ?' आंखों की तरह ही मां की आवाज भी भर आयी।
' मेरे घर और कहां '  स्‍वर मे आवेश।
            ' अच्‍छा, तुम्‍हारे घर...  हां ,हां क्‍यों नही जरूर चलूंगी... फिर यहां वापस पहुंचायेगा कौन ? क्‍या दामाद जी को समय मिल पायेगा ?' मां ने गौर से ताका।
 ' मां दो-चार दिनों के लिए नही, मैं तो हमेशा के लिए आपको ले जाना चाहती हूं।'
           ' मैं अपना घर छोड़कर हमेशा के लिए तुम्‍हारे घर क्‍यों चलूं... यहां मुझे दिक्‍कत ही क्‍या है ?' स्‍वर की तरह मां भी बदली-बदली सी।
' यहां का हाल मैं साफ-साफ देख ही रही हूं...' उसने सामने आंगन से निकलती भाभी पर जलती हुई नजर डाली।
           ' तु विभा की बात पर ध्‍यान मत दे... वह बिचारी दिन भर घर के कामों मे उलझी रहती है... आखिर वह भी तो इंसान है... उसे भी तो गुस्‍सा करने का हक है.. और गुस्‍सा आदमी उसी पर करता है, जिस पर वह अपना हक समझता है... क्‍या वह तुम पर आज तक कभी गुस्‍सा हुई है ?' मां ने द्ढ़ता से ताका।
' आखिर आपको मेरे साथ चलने में दिक्‍कत ही क्‍या है ? ' तेज खीझ।
           ' दिक्‍कत मुझे नही, बच्‍चों को होगी.. वे मेरे साथ ही सोते हैं, कहानी सुनते है... मेरे साथ्‍ा ही स्‍कूल जाते हैं... वे दिनभर मेरे आगे-पीछे लगे रहते हैं... कभी खाने की फरमाइश तो कभी खेलने की... पढ़ना भी वो मुझसे ही चाहते हैं.. विभा तो ऐसी ही हैं, पल में तोला,पल में माशा। गुस्‍सा चढ़ा नही कि किसी को नही छोड़ती और जैसे ही पारा उतर जाता है बदल जाती है। बेटी, सभी घरों में ऐसा ही होता है। जरूरत है तो बस इस बात की कि कोई एक ही भड़के... तभी घर टूटने से बचा रहेगा... उसके साथ मैं भी तू-तू मैं-मैं करूं तो बताओ इस घर मे क्‍या होगा... या तो वह इस घर मे र‍ह जायेगी या फिर मैं ... फिर वह घर ही कैसा, जहां परिवार का प्रत्‍येक सदस्‍य हक से न रह सके। क्‍या तुम्‍हारे साथ जाकर रहना ही एकमात्र हल है ? अच्‍छा ,यह बताओ तुम्‍हारी सासू मां कहां है ? मां की नजरें जैसे मानसी के चेहरे के पास कुछ देखने की कोशिश करने लगी।
             मानसी सकपका गयी थी । उसने बात बदलनी चाही पर मां की प्रश्‍नभरी नजरों को लांघ नही सकी, ' सासू मां तो अभी छोटी ननद  के पास है... मैने कई बार कहा कि मेरे साथ रहिये पर वह मानती ही नही ...' मानसी का स्‍वर कमजोर पड़ गया।
            ' मैं अपनी बेटी के साथ रहूं, तुम्‍हारी सास अपनी बेटी के साथ रहे, उसकी सास अपनी बेटी के साथ रहे...  आखिर यह सब क्‍या हो रहा है ? क्‍यो नही सास अपनी बहू को बेटी मानकर उसकी अच्‍छाइयों-बुराइयों के साथ खुशी से रहे... फिर बहू ही क्‍यो नही सास को मां मान लेती ? बेटी, तुम लोग यह कैसी परंपरा की नींव डाल रही हो ?  मां के शब्‍दों मे नीम-सा कसैलापन उतर चुका था।

Sunday 18 September 2011

शहरयार साहब को ज्ञानपीठ पुरस्‍कार


शहरयार साहब को हमारी ओर से ज्ञानपीठ पुरस्‍कार की ढेरों बधाई...
सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्‍यों है।
इस शहर में हर शख्‍स परेशान सा क्‍यों है।।

कितना सही कहा है शहरयार साहब ने , यहां लोगो को परेशान होने की एक नयी बीमारी लग गई है। साहित्‍य में भी कुएं का मेढ़क होना सही नही लगता। कवि हरिवंश राय बच्‍चन के सुपूत्र के हाथों पुरस्‍कार प्राप्‍त करने से कहां शहरयार साहब और पुरस्‍कार की गरिमा को धक्‍का लगता है ? अमिताभ अपने-आपमे एक ऐसी शख्‍िसयत हैं  जिनकी उपस्थिति से माहौल गरिमामय हो जाता है। एक और रिश्‍ता भी इनमें नजर आता है, वह है फिल्‍मों का । जब वे फिल्‍मों के लिए गजल लिख सकते हैं तो फिल्‍मवालों के हाथो पुरस्‍कार क्‍यो नही ग्रहण कर सकते ? ये विरोध के स्‍वर यह चेतावनी देते है कि साहित्‍यकार के बच्‍चे साहित्‍यकार होंगे तभी उन्‍हें साहित्‍यकारों की जमात मे शामिल किया जायेगा अन्‍यथा नही।
कुछ गजलें आप सबों के लिए शहरयार साहब की...


जो बुरा था कभी वह हो गया अच्‍छा कैसे,
वक्‍त के साथ मैं इस तेजी से बदला कैसे।

इस मोड़ के आगे भी कई मोड़ है वर्ना
यूं मेरे लिए तू कभी ठहरा नही होता।

ये सफर वो है कि रुकने का मुकाम इसमे नही।
मैं जो थम जाऊं तो परछाईं को चलता देखूं।।  

Monday 12 September 2011

लोककथा

                 
                      बैल और मनुष्‍य


       ब्रह्मा जी ध्‍यान लगाए बैठे थे। उन्‍होंने देखा कि धरती पर मनुष्‍यों का जीवन बहुत ही अस्‍त-व्‍यस्‍त है। जिसके मन में जब आता खाता, नहाता या सोता । कोई किसी का ख्‍याल न करता। यह सब देखकर ब्रह्मा जी को बड़ी चिंता हुई। वे विचार करने लगें कि क्‍या उपाय किया जाय, जिससे धरती पर मनुष्‍यों का जीवन सुचारू रूप से चल सके। अगर जल्‍द ही कोई उपाय न किया गया तो धरती का अस्तित्‍व ही खतरे में पड़ जायेगा। कुछ देर विचार मग्‍न हो वे उपाय सोचते रहे। उन्‍हें जल्‍द ही एक उपाय मिल भी गया। तब वे फिर सोचने लगें कि यह उपाय धरती वासियो के पास किसके जरिए पहुंचाया जाय। तभी उन्‍हें बैल आता दिख गया। उन्‍होंने उसे पास बुलाया। पास आकर बैल ने उन्‍हें प्रणाम किया। ब्रह्मा जी बोलें,  ' तुम तो देख ही रहे हो। धरती पर जीवन कितना अस्‍त.व्‍यस्‍त है। न खाने का कोई नियम है और न नहाने-सोने का। तुम ऐसा करो, धरती पर जाओ और सभी मनुष्‍यों से कहो कि‍ वे दिन मे तीन बार नहायें, एक बार खायें और एक ही बार सोयें। समझ गये ना। यही बात याद करके जाओ और उन्‍हें कहना। कुछ और मत कहना।' 
         बैल ने स्‍वीकृति मे सिर हिला दिया और ब्रह्मा जी को प्रणाम कर , आज्ञा लेकर धरती की ओर चल पड़ा। धरती पर पहुंच कर उसने सभी मनुष्‍यों को बुलाया और कहा, ' भगवान ब्रह्मा जी ने तुम लोगों को तीन बार खाने, एक बार नहाने और एक बार सोने को कहा है।' 
       मनुष्‍यों ने उसकी बात मान, उसी तरह आचरण करने का वचन दिया। तब संतुष्‍ट होकर वह ब्रह्मा जी के पास लौटा और बोला,  ' भगवन, जैसा आपने क‍हा था, वैसा ही मैंने धरती वासियों को कह दिया। उन्‍होंने आपकी बात पर अमल करने का मुझे वचन दिया है।' 
      ब्रह्मा जी बोले,  ' वत्‍स, मैंने तुमसे क्‍या कहा था, धरती वासियो को बोलने को, उसे जरा एक बार फिर से मेरे सामने कहो तो।'
     बैल ने कहा,  ' मैंने उन्‍हें तीन बार खाने, एक बार नहाने और एक बार सोने को कहा है।'
     यह सुनकर मुर्ख बैल पर उन्‍हें क्रोध आ गया। उन्‍हें लगा कि अगर मनुष्‍य दिन मे तीन बार खायेगा तो धरती पर अनाज का अकाल ही हो जायेगा। एक समय के पश्‍चात सभी मनुष्‍य भूख से मरने लगेंगे। उन्‍होंने बैल को शाप दया, ' तूने अपनी मूर्खता के कारण धरती वासियों को तीन बार खाने को कहा है। इसलिए तू धरती पर जा और हल मे जुतकर अन्‍न पैदा कर, जिससे कि सभी मनुष्‍य तीन समय खा सकें।'
          कहा जाता है कि‍ तभी से बैल धरती पर हल में जुतकर मनुष्‍यों के लिए तीन समय के भोजन के लिए अन्न उपजाता है। और आज भी वह मूर्खता का प्रतीक है।

Sunday 4 September 2011

बाल कहानी



                                                                 चंदन की खुशबू    

             चंदन और कुंदन दोनों भाई थे। दोनों एक ही कक्षा मे पढ़ते थे। लेकिन दोनों के स्‍वभाव मे बहुत अंतर था। चंदन जहां बहुत अधिक उदंड था, कुंदन उतना ही शांत। चंदन हमेशा कुंदन से झगड़ता पर कुंदन कुछ न कहता। यहां तक कि चंदन अपने माता-पिता की बातों को भी नही मानता , सिर्फ अपनी मर्जी से जो मन में आता करता। हमेशा मुहल्‍ले के लड़कों से झगड़ता, कभी उन्‍हें मारता तो कभी उनके खिलौनों को छीन लेता। उसके इस व्‍यवहार से उसके माता-पिता बहुत परेशान थे। वे उसे समझा कर थक-हार चुके थे, लेकिन उसके ऊपर कोई असर नही हुआ। गुस्‍से में वे उसे पीट भी चुके थे। फिर भी उसकी शरारतें कम न होती। थक-हार कर उन्‍होंने निश्‍चय किया कि  चंदन की टीचर से बात करनी चाहिए। शायद वह उसे सही रास्‍ते पर ला सके।
                    अगले दिन चंदन के माता-पिता उसकी टीचर से मिलें। उनकी सारी बातें सुनकर टीचर ने कहा ,  ' क्‍या? चंदन  इतना ज्‍यादा शैतान है? स्‍कूल मे थोड़ी-बहुत शैतानी करता है, जो कि प्रत्‍येक बच्‍चा करता है। उसकी शैतानी को हमलोग बचपना समझ कर ध्‍यान नही देते थे। क्‍योंकि जितना अच्‍छा वह पढ़ने-लिखने मे है, उतना ही खेल-कूद में भी। लेकिन उसकी ये अच्‍छाईयां इस समय फीकी पड़ जाती हैं, जब वह आप लोगो से बदजुबानी करता है। यह बहुत ही बुरी बात है। खैर, आप लोग चिंता न करें। मैं कोशिश करूंगी कि वह सचमुच अच्‍छा बच्‍चा बन जाये।'  चंदन के माता-पिता के जाने के बाद टीचर गहरी सोच मे पड़ गई।
             कुछ दिनों के पश्‍चात स्‍कूल में बच्‍चों को बताया जाता है कि उन्‍हें पिकनिक पर ले जाया जायेगा । सभी बच्‍चे बहुत खुश होते हैं। चंदन बहुत ज्‍यादा खुश होता है। घर आकर वह अपनी मम्‍मी से ढेर सारी खाने की चीजों की फरमाइश कर डालता है जो वह अपने साथ पिकनिक पर ले जाना चाहता है। जब मम्‍मी कहती है कि टीचर ने कुछ भी साथ ले जाने से मना किया है तो वह रोने-चिल्‍लाने लगता है, तब मजबूरन उसकी मम्‍मी सारी चीजें देने का वादा करती हैं। चंदन अपने साथ खिलौने भी ले जाना चाहता है। कुछ अच्‍छे खिलौने वह अपने बैग में रख लेता है ।
                  निश्‍िचत समय पर सभी बच्‍चे अपने माता-पिता के साथ आते हैं और टीचर उनका नाम ले-लेकर  स्‍कूल बस मे चढ़ाने लगती हैं। जब चंदन अपनी पीठ पर बैग लटका कर बस में चढ़ने लगता है तो टीचर उसे रोकती है और कहती है, ' चंदन, इस बैग में क्‍या है? तुम अपने साथ कुछ भी नही ले जा सकते।'  टीचर की बात सुनकर चंदन रूआंसा हो जाता है। वह कुछ कहने के लिए मुंह खोलना ही चाह रहा था कि उसकी टीचर बोली, ' चंदन , हमलोग ढ़ेर सारी खाने की चीजें और खेलने का सामान ले जा रहे हैं।'  इतना कहकर वे चंदन का बैग उसके पिता को दे देती है चंदन गुस्‍से मे एक लड़के को धक्‍का दे कर आगे बढ़ जाता है ।
                  बस चल पड़ती है। सभी बच्‍चे गाड़ियों, पशुओं और हरे-भरे पेडो़ को देखने में मशगूल थे। पर चंदन बिल्‍कुल उदास था। टीचर ने चंदन को अपने पास बुलाकर बिठाया और उससे बातें करने लगी। वह उससे सवाल भी पूछती जा रही थी, जिसका जवाब वह दे रहा था। थोड़ी देर बाद वह भी मन मे उठ रहे सवालों को टीचर से पूछने लगा। तभी उसे एक खास तरह की खुशबू का अहसास हुआ। उसने टीचर से पूछा, ' टीचर, ये खुशबू जो आ रही है चंदन की है ना। टीचर ने कहा, ' हां चंदन, ये खुशबू चंदन की ही है। देखो वो पेड़ चंदन का है, उसी से खुशबू आ रही  है। तभी चंदन चिल्‍लाता है, ' सांप, सांप , टीचर उस पेड़ पर सांप है।'  टीचर बोली, ' हां देखो , चंदन का पेड़ कितना अच्‍छा है। उससे सांप लिपटा है , वह अपने मुंह से विष भी छोड़ रहा है। लेकिन चंदन की सुगंध उससे विषैली नही हो रही बल्कि वह अपनी पहले वाली सुगंध ही बिखेर रही है। वह अपना अच्‍छा स्‍वभाव नही छोड़ रही। क्‍यों कि जब उसके साथ रहकर सांप  अपना बुरा स्‍वभाव नही छोड़ रहा तो वह अपना अच्‍छा स्‍वभाव क्‍यों छोड़े। बोलो, मैं ठीक कह रही हूं न। चंदन, तुम्‍हारा नाम भी तो चंदन है , क्‍यों नही तुम भी इस चंदन के पेड़ की तरह अच्‍छे चंदन बन जाते हो । बोलो, बनोगे ना अच्‍छे चंदन, सबके प्‍यारे चंदन।'
             टीचर की बात सुनकर चंदन धीरे-से मुस्‍कुरा दिया । उसने धीरे से कहा , ' हां टीचर , मैं अपने माता-पिता का अच्‍छा चंदन बनूंगा। मै सबका प्‍यारा चंदन बनूंगा । मै वादा करता हूं।'  इतना कहकर वह हंसते हुए दौड़कर अपने साथियों के बीच जाकर हंसी-मजाक करने लगा । पिकनिक से लौटकर जब चंदन घर पहुंचा तो उसका व्‍यवहार देखकर सभी आश्‍चर्यचकित रह गये। क्‍योंकि जो चंदन पिकनिक पर गया था, बिल्‍कुल उसका दूसरा रूप वापस आया  था। उसके इस बदले रूप को देखकर माता-पिता बहुत ही प्रसन्‍न हुए। वे अब चंदन को भी खुब प्‍यार करने लगें। क्‍योंकि चंदन अब सचमुच का अच्‍छा बच्‍चा जो बन गया था।

Thursday 4 August 2011

लघुकथा
बोनसाई की छाया  
     "दादी, आप क्‍या कर रही हैं?" नन्‍ही गोपी बगीचे में खेलते-खेलते अचानक आकर प्रतिभा से पूछती है।
     "मै इस पेड़ को पानी से सींच रही हूं, इसकी सेवा कर रही हूं, जिससे कि यह  भी एक बडा़-सा पेड बन जाए।" प्रतिभा के चेहरे पर दर्द की एक परत-सी बिछ गई।
    "हा-हा-हा, दादी आप इसे पेड़ कैसे बना सकती हैं। यह तो बोनसाई का पेड़ है जो हमेशा छोटा ही रहता है। अच्‍छा! इसी से माली काका मुझसे कई बार पूछ चुके है कि इस पेड़ को जमीन में मैंने लगाया है क्‍या। जब भी मैं सिर हिलाकर ना करती तो वे मुझे अविश्‍वास भरी नजरों से देखते। मेरे पूछने पर उन्‍होंने बताया कि जमीन में लगाने से यह पेड़ बन जायेगा। जबकि वे इसे बोनसाई बनाना चाहते हैं। दादी, पेड़ और बोनसाई कैसे बनाए जाते है?" नन्‍ही गोपी की आंखों में जिज्ञासा थी।
    "पेड़ जमीन में लगाया जाता है और उसे खाद-पानी दिया जाता है जिससे उसकी जड़ें जमीन में गहरी पैठ जाती हैं और वह अपने मन-मुताबिक जितना चाहे उतना टहनियों सरीखी बांहें फैला सकता है और आसमान की उंचाइयों को छू सकता है। जबकि बोनसाई को बनाने के लिए पहले उसकी जड़ों को काटा जाता है। फिर उसकी टहनियों को काट दिया जाता है। और ऐसा तब-तब किया जाता है जब-जब वह टहनियों सरीखी अपनी बांहें आसमान की ओर फैलाना चाहती है। जब-जब वह मिट्टी में जड़ जमा लेती है उसे मिट्टी से बाहर निकाला जाता है और उसकी जड़ों को काट दिया जाता है और नयी मिट्टी और खाद के हवाले कर दिया जाता है।" प्रतिभा की आवाज लड़खडा़ने लगी थी। 
   '' अच्‍छा दादी, अब मैं खेलने जा रही हूं।" नन्‍ही गोपी मचलते हुए बोली । जैसे ही गोपी जाने के लिए मुडी़ प्रतिभा ने उसका हाथ पकड़कर रोका और बोली," बेटी, तुम भी पेड़ की तरह बनना। मेरी तरह बोनसाई कभी नही बनना।"
तीर्थयात्रा


"प्रणाम चाची!'' किशन ने झुककर  सरला देवी के चरणों को स्‍पर्श किया।
"खुश रहो बेटा !"  उनका चेहरा खिल उठा।
"चाची अब तो चारों बेटों का शादी-ब्‍याह हो गया। उन्‍हें बाल-बच्‍चे  भी हो गये। अब तो बेटों से कहिए, आपको चारों धाम घुमा  दें।''  किशन चाची के नजदीक बैठते हुए बोला।
 " हां बेटे ! चारो धाम बेटे क्‍या घुमाएंगे, मैं स्‍वयं ही चारों धाम घूमती रहती हूं। चारों के यहां तीन-तीन महीने की पारी है। उनके ही बाल-बच्‍चों के दर्शन कर निहाल हो जाती हूं। जैसे ही तीन महीने पूरे होते हैं, दूसरे धाम पर जाने के लिए बोरिया-बिस्तर समेट लेना होता है... अब तो इन्‍हीं चारों धामों में घूम-घूम कर अपने जीवन को सार्थक कर रही हूं।''
  किशन चाची का चेहरा पढने की कोशिश कर रहा था। चाची का चेहरा निर्विकार था ।    

Tuesday 12 July 2011

... मेरी मां ...





  • मां, मेरी मां  

     प्यारी...

     सुन्दर...

    हंसता चेहरा

    दमकता चेहरा   
      
    मस्ती के घोल

     आशीष के बोल

    सबकी खुशी में

    शामिल

    सबके दुःख में नहीं

    क्योंकि

    जिस पर भी

    मां के वटवृक्ष की

    छाया है

    दुःख उसके पास

    फटक नहीं पाया है

    हां, ऐसी है मेरी मां

    मेरी मां

    सिर्फ

    मेरी

    मां...

  • -सविता सिंह

सच,सपना,साहि‍त्‍य,संयोग एवं सबका साथ