Saturday 17 December 2011



 माई के चरण :  कमल दल , जहां है स्‍वर्ग का वास

मेरी माई हमेशा से हमलोगों के दुख-सुख्‍ा में संग-साथ। जब कभी भी हमे उनकी जरूरत पड़ी, वे हमेशा हमलोग के साथ एक पांव पर खड़ी रही। लेकिन अब ये पांव सिर्फ उनकी याद दिलायेंगे। अब पता नही हम मंझधार में फंसेंगे तो हमे बचाकर किनारे तक कौन लायेगा। फिर भी विश्‍वास नही होता कि मां नही है तो हमलोग डूब जायेंगे। मां का शरीर ही तो नही है, माई तो मेरे रोम-रोम और आत्‍मा मे रची-बसी है। माई सशरीर थी तो बहुत याद करती थी लेकिन अब जब नही है तो प्रत्‍येक क्षण वह मेरे दिल-दिमाग में रची-बसी हुई है। न मैं कभी माई को भूली थी और न कभी रहती दुनिया तक भूलूंगी। आखिरकार मैं उनकी दुलरी बेटी जो थी और हमेशा रहूंगी। माई के चरणों में मेरा रोज-रोज शत-शत प्रणाम।

Friday 9 December 2011

कहानी

                                                                       राजा और बूढ़ी मां

      प्रतापगढ़ के राजा वीर प्रताप सिंह दरबार में फरियादियों की समस्‍याएं बड़े ही ध्‍यान से सुन रहे थे। हमेशा की तरह वे लोगों की समस्‍याओं का निदान भी करते चल रहे थे। एक-एक कर फरियादी खुशी
-खुशी सिर झुकाते राजा की जय-जयकार करते चले गये। जब दरबार का सारा काम निबट गया तब महाराज ने अपने महामंत्री से कहा,  ' क्‍यों न हम आज रसोई की ओर चलें , देखे तो सही आखिर वहां हमारे लिए जो भोजन पकाया जाता है वह कैसे तैयार होता है।'  
  'जी महाराज, अवश्‍य चला जाय। ' महामंत्री तत्‍परता से उठते हुए बोले। 
   रसोईघर के करीब पहुंचते ही व्‍यंजनों की खुशबू से राजा की भूख अचानक जाग गयी। यही हाल महामंत्री का भी था। दोनों एक-दूसरे की ओर देखकर हल्‍के से मुस्‍कुराए। रसोइये ने जब साक्षात महाराज को सामने देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना नही रहा । उसने झट से व्‍यंजन बड़े आदर के साथ राजा और महामंत्री के सामने प्रस्‍तुत किया। राजा ना नही कर सके। खाते-खाते राजा खिड़की के समीप चले गये। तभी उन्‍होंने देखा कि एक कृशकाय  वृद्धा लाठी  के सहारे रसोईघर की नाली के पास खड़ी कुछ निहार रही थी। थोड़ी देर बाद वह वहां से चली गई। राजा को बहुत आश्‍चर्य हुआ। 
    अगले दिन राजा फिर दरबार का काम खत्‍म कर रसोईघर की खड़की के पास खडे़ हो गये। वृद्धा फिर आयी, जब वह जाने लगी तो उन्‍होंने महामंत्री को इशारे से बुलाया और कहा, 'इस बूढ़ी अम्‍मा को दरबार मे हाजिर किया जाय।'
    महामंत्री सहमति में सिर हिलाकर बाहर चले गये।  थोड़ी देर बाद महाराज के सामने वृद्धा को लाया गया। महाराज ने पूछा, 'अम्‍मा, तुम कौन हो, कहां रहती हो, तुम्‍हारे घर मे कौन-कौन है ? मैं दो दिन से देख रहा हूं, तुम रसोई के पास थोड़ी देर खड़ी रहती हो , फिर चली जाती हो, क्‍यों ? क्‍या तुम्‍हे कुछ चाहिए ? '
  ' महाराज मैं अनाथ हूं, मेरा कोई ठिकाना नही  है। मेरी आपसे विनती है कि मेरे लिए अपने रसोईघर के पीछे एक झोपड़ी बनवा दे।'
  ' महामंत्री जी , आज ही बूढ़ी अम्‍मा के लिए रसोईघर के पीछे एक झोपड़ी बनवा दीजिए।'
     दो-तीन महीने बाद राजा को वृद्धा की याद आयी। उन्‍होंने महामंत्री से कहा, ' अरे मैं तो उस बूढ़ी अम्‍मा को बिल्‍कूल ही भूल गया। उनका क्‍या हाल-चाल है, पता ही नही चला। ऐसा करते है कि अभी चलकर उनसे मिल लेते है। '
   महामंत्री के साथ राजा वीर प्रताप सिंह रसोईघर के पिछवाड़े उस वृद्धा की झोपड़ी के सामने खड़े थे, तभी वृद्धा निकली। सामने महाराज को देखकर उसने झुककर प्रणाम किया। महाराज ने पूछा,  'तुम कौन हो ? यहां पर जिस बूढ़ी अम्‍मा के लिए यह झोपड़ी बनी थी, वह कहा है ? '
  ' महाराज, वह बूढ़ी अम्‍मा मैं ही हूं।'  
  ' परन्‍तु ऐसा कैसे हो सकता है ? कहां वह बीमार-सी कृशकाय वृद्धा और कहां आप, बिल्‍कुल स्‍वस्‍थ। आपको तो मैं पहचान ही नही पाया। आखिर ऐसा चमत्‍कार कैसे हो गया ? '  
  'महाराज, कोई चमत्‍कार नही हुआ है। बस , यह आपके रसोईघर के मांड़ का कमाल है। जब मैं यहां रहने आई तो जो मांड़ आपका रसोइया नाली मे बहा देता था, मैं उससे वह मांग कर पीने लगी। बस,  परिणाम आपके सामने है।'  
' बूढ़ी अम्‍मा, क्‍या वाकई मांड़ में इतना गुण है कि वह रोगी शरीर को निरोगी बना दे ? '    
' जी महाराज, चावल का सारा गुण तो मांड़ के अंदर ही होता है। आपका रसोइया मांड़ को व्‍यर्थ समझकर नाली में बहा देता था। यही देखकर मैंने आपसे यहां रहने की अनुमति मांगी थी। '
   ' अगर मांड़ में इतना गुण है तो फिर आज से मैं भी रोज मांड़ पिया करूंगा और साथ मे महामंत्री जी भी । क्‍यों महामंत्री जी, ठीक है ना! अम्‍मा आज से आप हमारे रसोईघर की प्रमुख होंगी। हमारे रसोईघर मे क्‍या और कैसे बनेगा यह आप तय करेंगी। जिससे कि भोजन का स्‍वाद और पौष्टिकता दोनों ही बनी रहे। '  इतना कहकर महाराज ने महामंत्री की ओर देखा। महामंत्री ने सिर झुकाकर स‍हमति जतायी। वृद्धा ने कृतज्ञता से हाथ जोड़कर दोनों को विदा किया।
   
                                                                                                           - सविता सिंह