Wednesday 21 September 2011

लघुकथा

                                                                             परंपरा


' मां एक बात पूछूं बुरा तो नही मानोगी... तुम मेरे साथ क्‍यो नही चलती ? ' मानसी घर के प्रतिकुल माहौल पर नजर फिराती रही।
             ' कहां, कहां चलूं... तुम्‍हारेसाथ ?' आंखों की तरह ही मां की आवाज भी भर आयी।
' मेरे घर और कहां '  स्‍वर मे आवेश।
            ' अच्‍छा, तुम्‍हारे घर...  हां ,हां क्‍यों नही जरूर चलूंगी... फिर यहां वापस पहुंचायेगा कौन ? क्‍या दामाद जी को समय मिल पायेगा ?' मां ने गौर से ताका।
 ' मां दो-चार दिनों के लिए नही, मैं तो हमेशा के लिए आपको ले जाना चाहती हूं।'
           ' मैं अपना घर छोड़कर हमेशा के लिए तुम्‍हारे घर क्‍यों चलूं... यहां मुझे दिक्‍कत ही क्‍या है ?' स्‍वर की तरह मां भी बदली-बदली सी।
' यहां का हाल मैं साफ-साफ देख ही रही हूं...' उसने सामने आंगन से निकलती भाभी पर जलती हुई नजर डाली।
           ' तु विभा की बात पर ध्‍यान मत दे... वह बिचारी दिन भर घर के कामों मे उलझी रहती है... आखिर वह भी तो इंसान है... उसे भी तो गुस्‍सा करने का हक है.. और गुस्‍सा आदमी उसी पर करता है, जिस पर वह अपना हक समझता है... क्‍या वह तुम पर आज तक कभी गुस्‍सा हुई है ?' मां ने द्ढ़ता से ताका।
' आखिर आपको मेरे साथ चलने में दिक्‍कत ही क्‍या है ? ' तेज खीझ।
           ' दिक्‍कत मुझे नही, बच्‍चों को होगी.. वे मेरे साथ ही सोते हैं, कहानी सुनते है... मेरे साथ्‍ा ही स्‍कूल जाते हैं... वे दिनभर मेरे आगे-पीछे लगे रहते हैं... कभी खाने की फरमाइश तो कभी खेलने की... पढ़ना भी वो मुझसे ही चाहते हैं.. विभा तो ऐसी ही हैं, पल में तोला,पल में माशा। गुस्‍सा चढ़ा नही कि किसी को नही छोड़ती और जैसे ही पारा उतर जाता है बदल जाती है। बेटी, सभी घरों में ऐसा ही होता है। जरूरत है तो बस इस बात की कि कोई एक ही भड़के... तभी घर टूटने से बचा रहेगा... उसके साथ मैं भी तू-तू मैं-मैं करूं तो बताओ इस घर मे क्‍या होगा... या तो वह इस घर मे र‍ह जायेगी या फिर मैं ... फिर वह घर ही कैसा, जहां परिवार का प्रत्‍येक सदस्‍य हक से न रह सके। क्‍या तुम्‍हारे साथ जाकर रहना ही एकमात्र हल है ? अच्‍छा ,यह बताओ तुम्‍हारी सासू मां कहां है ? मां की नजरें जैसे मानसी के चेहरे के पास कुछ देखने की कोशिश करने लगी।
             मानसी सकपका गयी थी । उसने बात बदलनी चाही पर मां की प्रश्‍नभरी नजरों को लांघ नही सकी, ' सासू मां तो अभी छोटी ननद  के पास है... मैने कई बार कहा कि मेरे साथ रहिये पर वह मानती ही नही ...' मानसी का स्‍वर कमजोर पड़ गया।
            ' मैं अपनी बेटी के साथ रहूं, तुम्‍हारी सास अपनी बेटी के साथ रहे, उसकी सास अपनी बेटी के साथ रहे...  आखिर यह सब क्‍या हो रहा है ? क्‍यो नही सास अपनी बहू को बेटी मानकर उसकी अच्‍छाइयों-बुराइयों के साथ खुशी से रहे... फिर बहू ही क्‍यो नही सास को मां मान लेती ? बेटी, तुम लोग यह कैसी परंपरा की नींव डाल रही हो ?  मां के शब्‍दों मे नीम-सा कसैलापन उतर चुका था।

Sunday 18 September 2011

शहरयार साहब को ज्ञानपीठ पुरस्‍कार


शहरयार साहब को हमारी ओर से ज्ञानपीठ पुरस्‍कार की ढेरों बधाई...
सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्‍यों है।
इस शहर में हर शख्‍स परेशान सा क्‍यों है।।

कितना सही कहा है शहरयार साहब ने , यहां लोगो को परेशान होने की एक नयी बीमारी लग गई है। साहित्‍य में भी कुएं का मेढ़क होना सही नही लगता। कवि हरिवंश राय बच्‍चन के सुपूत्र के हाथों पुरस्‍कार प्राप्‍त करने से कहां शहरयार साहब और पुरस्‍कार की गरिमा को धक्‍का लगता है ? अमिताभ अपने-आपमे एक ऐसी शख्‍िसयत हैं  जिनकी उपस्थिति से माहौल गरिमामय हो जाता है। एक और रिश्‍ता भी इनमें नजर आता है, वह है फिल्‍मों का । जब वे फिल्‍मों के लिए गजल लिख सकते हैं तो फिल्‍मवालों के हाथो पुरस्‍कार क्‍यो नही ग्रहण कर सकते ? ये विरोध के स्‍वर यह चेतावनी देते है कि साहित्‍यकार के बच्‍चे साहित्‍यकार होंगे तभी उन्‍हें साहित्‍यकारों की जमात मे शामिल किया जायेगा अन्‍यथा नही।
कुछ गजलें आप सबों के लिए शहरयार साहब की...


जो बुरा था कभी वह हो गया अच्‍छा कैसे,
वक्‍त के साथ मैं इस तेजी से बदला कैसे।

इस मोड़ के आगे भी कई मोड़ है वर्ना
यूं मेरे लिए तू कभी ठहरा नही होता।

ये सफर वो है कि रुकने का मुकाम इसमे नही।
मैं जो थम जाऊं तो परछाईं को चलता देखूं।।  

Monday 12 September 2011

लोककथा

                 
                      बैल और मनुष्‍य


       ब्रह्मा जी ध्‍यान लगाए बैठे थे। उन्‍होंने देखा कि धरती पर मनुष्‍यों का जीवन बहुत ही अस्‍त-व्‍यस्‍त है। जिसके मन में जब आता खाता, नहाता या सोता । कोई किसी का ख्‍याल न करता। यह सब देखकर ब्रह्मा जी को बड़ी चिंता हुई। वे विचार करने लगें कि क्‍या उपाय किया जाय, जिससे धरती पर मनुष्‍यों का जीवन सुचारू रूप से चल सके। अगर जल्‍द ही कोई उपाय न किया गया तो धरती का अस्तित्‍व ही खतरे में पड़ जायेगा। कुछ देर विचार मग्‍न हो वे उपाय सोचते रहे। उन्‍हें जल्‍द ही एक उपाय मिल भी गया। तब वे फिर सोचने लगें कि यह उपाय धरती वासियो के पास किसके जरिए पहुंचाया जाय। तभी उन्‍हें बैल आता दिख गया। उन्‍होंने उसे पास बुलाया। पास आकर बैल ने उन्‍हें प्रणाम किया। ब्रह्मा जी बोलें,  ' तुम तो देख ही रहे हो। धरती पर जीवन कितना अस्‍त.व्‍यस्‍त है। न खाने का कोई नियम है और न नहाने-सोने का। तुम ऐसा करो, धरती पर जाओ और सभी मनुष्‍यों से कहो कि‍ वे दिन मे तीन बार नहायें, एक बार खायें और एक ही बार सोयें। समझ गये ना। यही बात याद करके जाओ और उन्‍हें कहना। कुछ और मत कहना।' 
         बैल ने स्‍वीकृति मे सिर हिला दिया और ब्रह्मा जी को प्रणाम कर , आज्ञा लेकर धरती की ओर चल पड़ा। धरती पर पहुंच कर उसने सभी मनुष्‍यों को बुलाया और कहा, ' भगवान ब्रह्मा जी ने तुम लोगों को तीन बार खाने, एक बार नहाने और एक बार सोने को कहा है।' 
       मनुष्‍यों ने उसकी बात मान, उसी तरह आचरण करने का वचन दिया। तब संतुष्‍ट होकर वह ब्रह्मा जी के पास लौटा और बोला,  ' भगवन, जैसा आपने क‍हा था, वैसा ही मैंने धरती वासियों को कह दिया। उन्‍होंने आपकी बात पर अमल करने का मुझे वचन दिया है।' 
      ब्रह्मा जी बोले,  ' वत्‍स, मैंने तुमसे क्‍या कहा था, धरती वासियो को बोलने को, उसे जरा एक बार फिर से मेरे सामने कहो तो।'
     बैल ने कहा,  ' मैंने उन्‍हें तीन बार खाने, एक बार नहाने और एक बार सोने को कहा है।'
     यह सुनकर मुर्ख बैल पर उन्‍हें क्रोध आ गया। उन्‍हें लगा कि अगर मनुष्‍य दिन मे तीन बार खायेगा तो धरती पर अनाज का अकाल ही हो जायेगा। एक समय के पश्‍चात सभी मनुष्‍य भूख से मरने लगेंगे। उन्‍होंने बैल को शाप दया, ' तूने अपनी मूर्खता के कारण धरती वासियों को तीन बार खाने को कहा है। इसलिए तू धरती पर जा और हल मे जुतकर अन्‍न पैदा कर, जिससे कि सभी मनुष्‍य तीन समय खा सकें।'
          कहा जाता है कि‍ तभी से बैल धरती पर हल में जुतकर मनुष्‍यों के लिए तीन समय के भोजन के लिए अन्न उपजाता है। और आज भी वह मूर्खता का प्रतीक है।

Sunday 4 September 2011

बाल कहानी



                                                                 चंदन की खुशबू    

             चंदन और कुंदन दोनों भाई थे। दोनों एक ही कक्षा मे पढ़ते थे। लेकिन दोनों के स्‍वभाव मे बहुत अंतर था। चंदन जहां बहुत अधिक उदंड था, कुंदन उतना ही शांत। चंदन हमेशा कुंदन से झगड़ता पर कुंदन कुछ न कहता। यहां तक कि चंदन अपने माता-पिता की बातों को भी नही मानता , सिर्फ अपनी मर्जी से जो मन में आता करता। हमेशा मुहल्‍ले के लड़कों से झगड़ता, कभी उन्‍हें मारता तो कभी उनके खिलौनों को छीन लेता। उसके इस व्‍यवहार से उसके माता-पिता बहुत परेशान थे। वे उसे समझा कर थक-हार चुके थे, लेकिन उसके ऊपर कोई असर नही हुआ। गुस्‍से में वे उसे पीट भी चुके थे। फिर भी उसकी शरारतें कम न होती। थक-हार कर उन्‍होंने निश्‍चय किया कि  चंदन की टीचर से बात करनी चाहिए। शायद वह उसे सही रास्‍ते पर ला सके।
                    अगले दिन चंदन के माता-पिता उसकी टीचर से मिलें। उनकी सारी बातें सुनकर टीचर ने कहा ,  ' क्‍या? चंदन  इतना ज्‍यादा शैतान है? स्‍कूल मे थोड़ी-बहुत शैतानी करता है, जो कि प्रत्‍येक बच्‍चा करता है। उसकी शैतानी को हमलोग बचपना समझ कर ध्‍यान नही देते थे। क्‍योंकि जितना अच्‍छा वह पढ़ने-लिखने मे है, उतना ही खेल-कूद में भी। लेकिन उसकी ये अच्‍छाईयां इस समय फीकी पड़ जाती हैं, जब वह आप लोगो से बदजुबानी करता है। यह बहुत ही बुरी बात है। खैर, आप लोग चिंता न करें। मैं कोशिश करूंगी कि वह सचमुच अच्‍छा बच्‍चा बन जाये।'  चंदन के माता-पिता के जाने के बाद टीचर गहरी सोच मे पड़ गई।
             कुछ दिनों के पश्‍चात स्‍कूल में बच्‍चों को बताया जाता है कि उन्‍हें पिकनिक पर ले जाया जायेगा । सभी बच्‍चे बहुत खुश होते हैं। चंदन बहुत ज्‍यादा खुश होता है। घर आकर वह अपनी मम्‍मी से ढेर सारी खाने की चीजों की फरमाइश कर डालता है जो वह अपने साथ पिकनिक पर ले जाना चाहता है। जब मम्‍मी कहती है कि टीचर ने कुछ भी साथ ले जाने से मना किया है तो वह रोने-चिल्‍लाने लगता है, तब मजबूरन उसकी मम्‍मी सारी चीजें देने का वादा करती हैं। चंदन अपने साथ खिलौने भी ले जाना चाहता है। कुछ अच्‍छे खिलौने वह अपने बैग में रख लेता है ।
                  निश्‍िचत समय पर सभी बच्‍चे अपने माता-पिता के साथ आते हैं और टीचर उनका नाम ले-लेकर  स्‍कूल बस मे चढ़ाने लगती हैं। जब चंदन अपनी पीठ पर बैग लटका कर बस में चढ़ने लगता है तो टीचर उसे रोकती है और कहती है, ' चंदन, इस बैग में क्‍या है? तुम अपने साथ कुछ भी नही ले जा सकते।'  टीचर की बात सुनकर चंदन रूआंसा हो जाता है। वह कुछ कहने के लिए मुंह खोलना ही चाह रहा था कि उसकी टीचर बोली, ' चंदन , हमलोग ढ़ेर सारी खाने की चीजें और खेलने का सामान ले जा रहे हैं।'  इतना कहकर वे चंदन का बैग उसके पिता को दे देती है चंदन गुस्‍से मे एक लड़के को धक्‍का दे कर आगे बढ़ जाता है ।
                  बस चल पड़ती है। सभी बच्‍चे गाड़ियों, पशुओं और हरे-भरे पेडो़ को देखने में मशगूल थे। पर चंदन बिल्‍कुल उदास था। टीचर ने चंदन को अपने पास बुलाकर बिठाया और उससे बातें करने लगी। वह उससे सवाल भी पूछती जा रही थी, जिसका जवाब वह दे रहा था। थोड़ी देर बाद वह भी मन मे उठ रहे सवालों को टीचर से पूछने लगा। तभी उसे एक खास तरह की खुशबू का अहसास हुआ। उसने टीचर से पूछा, ' टीचर, ये खुशबू जो आ रही है चंदन की है ना। टीचर ने कहा, ' हां चंदन, ये खुशबू चंदन की ही है। देखो वो पेड़ चंदन का है, उसी से खुशबू आ रही  है। तभी चंदन चिल्‍लाता है, ' सांप, सांप , टीचर उस पेड़ पर सांप है।'  टीचर बोली, ' हां देखो , चंदन का पेड़ कितना अच्‍छा है। उससे सांप लिपटा है , वह अपने मुंह से विष भी छोड़ रहा है। लेकिन चंदन की सुगंध उससे विषैली नही हो रही बल्कि वह अपनी पहले वाली सुगंध ही बिखेर रही है। वह अपना अच्‍छा स्‍वभाव नही छोड़ रही। क्‍यों कि जब उसके साथ रहकर सांप  अपना बुरा स्‍वभाव नही छोड़ रहा तो वह अपना अच्‍छा स्‍वभाव क्‍यों छोड़े। बोलो, मैं ठीक कह रही हूं न। चंदन, तुम्‍हारा नाम भी तो चंदन है , क्‍यों नही तुम भी इस चंदन के पेड़ की तरह अच्‍छे चंदन बन जाते हो । बोलो, बनोगे ना अच्‍छे चंदन, सबके प्‍यारे चंदन।'
             टीचर की बात सुनकर चंदन धीरे-से मुस्‍कुरा दिया । उसने धीरे से कहा , ' हां टीचर , मैं अपने माता-पिता का अच्‍छा चंदन बनूंगा। मै सबका प्‍यारा चंदन बनूंगा । मै वादा करता हूं।'  इतना कहकर वह हंसते हुए दौड़कर अपने साथियों के बीच जाकर हंसी-मजाक करने लगा । पिकनिक से लौटकर जब चंदन घर पहुंचा तो उसका व्‍यवहार देखकर सभी आश्‍चर्यचकित रह गये। क्‍योंकि जो चंदन पिकनिक पर गया था, बिल्‍कुल उसका दूसरा रूप वापस आया  था। उसके इस बदले रूप को देखकर माता-पिता बहुत ही प्रसन्‍न हुए। वे अब चंदन को भी खुब प्‍यार करने लगें। क्‍योंकि चंदन अब सचमुच का अच्‍छा बच्‍चा जो बन गया था।