परंपरा
' मां एक बात पूछूं बुरा तो नही मानोगी... तुम मेरे साथ क्यो नही चलती ? ' मानसी घर के प्रतिकुल माहौल पर नजर फिराती रही।
' कहां, कहां चलूं... तुम्हारेसाथ ?' आंखों की तरह ही मां की आवाज भी भर आयी।
' मेरे घर और कहां ' स्वर मे आवेश।
' अच्छा, तुम्हारे घर... हां ,हां क्यों नही जरूर चलूंगी... फिर यहां वापस पहुंचायेगा कौन ? क्या दामाद जी को समय मिल पायेगा ?' मां ने गौर से ताका।
' मां दो-चार दिनों के लिए नही, मैं तो हमेशा के लिए आपको ले जाना चाहती हूं।'
' मैं अपना घर छोड़कर हमेशा के लिए तुम्हारे घर क्यों चलूं... यहां मुझे दिक्कत ही क्या है ?' स्वर की तरह मां भी बदली-बदली सी।
' यहां का हाल मैं साफ-साफ देख ही रही हूं...' उसने सामने आंगन से निकलती भाभी पर जलती हुई नजर डाली।
' तु विभा की बात पर ध्यान मत दे... वह बिचारी दिन भर घर के कामों मे उलझी रहती है... आखिर वह भी तो इंसान है... उसे भी तो गुस्सा करने का हक है.. और गुस्सा आदमी उसी पर करता है, जिस पर वह अपना हक समझता है... क्या वह तुम पर आज तक कभी गुस्सा हुई है ?' मां ने द्ढ़ता से ताका।
' आखिर आपको मेरे साथ चलने में दिक्कत ही क्या है ? ' तेज खीझ।
' दिक्कत मुझे नही, बच्चों को होगी.. वे मेरे साथ ही सोते हैं, कहानी सुनते है... मेरे साथ्ा ही स्कूल जाते हैं... वे दिनभर मेरे आगे-पीछे लगे रहते हैं... कभी खाने की फरमाइश तो कभी खेलने की... पढ़ना भी वो मुझसे ही चाहते हैं.. विभा तो ऐसी ही हैं, पल में तोला,पल में माशा। गुस्सा चढ़ा नही कि किसी को नही छोड़ती और जैसे ही पारा उतर जाता है बदल जाती है। बेटी, सभी घरों में ऐसा ही होता है। जरूरत है तो बस इस बात की कि कोई एक ही भड़के... तभी घर टूटने से बचा रहेगा... उसके साथ मैं भी तू-तू मैं-मैं करूं तो बताओ इस घर मे क्या होगा... या तो वह इस घर मे रह जायेगी या फिर मैं ... फिर वह घर ही कैसा, जहां परिवार का प्रत्येक सदस्य हक से न रह सके। क्या तुम्हारे साथ जाकर रहना ही एकमात्र हल है ? अच्छा ,यह बताओ तुम्हारी सासू मां कहां है ? मां की नजरें जैसे मानसी के चेहरे के पास कुछ देखने की कोशिश करने लगी।
मानसी सकपका गयी थी । उसने बात बदलनी चाही पर मां की प्रश्नभरी नजरों को लांघ नही सकी, ' सासू मां तो अभी छोटी ननद के पास है... मैने कई बार कहा कि मेरे साथ रहिये पर वह मानती ही नही ...' मानसी का स्वर कमजोर पड़ गया।
' मैं अपनी बेटी के साथ रहूं, तुम्हारी सास अपनी बेटी के साथ रहे, उसकी सास अपनी बेटी के साथ रहे... आखिर यह सब क्या हो रहा है ? क्यो नही सास अपनी बहू को बेटी मानकर उसकी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ खुशी से रहे... फिर बहू ही क्यो नही सास को मां मान लेती ? बेटी, तुम लोग यह कैसी परंपरा की नींव डाल रही हो ? मां के शब्दों मे नीम-सा कसैलापन उतर चुका था।
' मां एक बात पूछूं बुरा तो नही मानोगी... तुम मेरे साथ क्यो नही चलती ? ' मानसी घर के प्रतिकुल माहौल पर नजर फिराती रही।
' कहां, कहां चलूं... तुम्हारेसाथ ?' आंखों की तरह ही मां की आवाज भी भर आयी।
' मेरे घर और कहां ' स्वर मे आवेश।
' अच्छा, तुम्हारे घर... हां ,हां क्यों नही जरूर चलूंगी... फिर यहां वापस पहुंचायेगा कौन ? क्या दामाद जी को समय मिल पायेगा ?' मां ने गौर से ताका।
' मां दो-चार दिनों के लिए नही, मैं तो हमेशा के लिए आपको ले जाना चाहती हूं।'
' मैं अपना घर छोड़कर हमेशा के लिए तुम्हारे घर क्यों चलूं... यहां मुझे दिक्कत ही क्या है ?' स्वर की तरह मां भी बदली-बदली सी।
' यहां का हाल मैं साफ-साफ देख ही रही हूं...' उसने सामने आंगन से निकलती भाभी पर जलती हुई नजर डाली।
' तु विभा की बात पर ध्यान मत दे... वह बिचारी दिन भर घर के कामों मे उलझी रहती है... आखिर वह भी तो इंसान है... उसे भी तो गुस्सा करने का हक है.. और गुस्सा आदमी उसी पर करता है, जिस पर वह अपना हक समझता है... क्या वह तुम पर आज तक कभी गुस्सा हुई है ?' मां ने द्ढ़ता से ताका।
' आखिर आपको मेरे साथ चलने में दिक्कत ही क्या है ? ' तेज खीझ।
' दिक्कत मुझे नही, बच्चों को होगी.. वे मेरे साथ ही सोते हैं, कहानी सुनते है... मेरे साथ्ा ही स्कूल जाते हैं... वे दिनभर मेरे आगे-पीछे लगे रहते हैं... कभी खाने की फरमाइश तो कभी खेलने की... पढ़ना भी वो मुझसे ही चाहते हैं.. विभा तो ऐसी ही हैं, पल में तोला,पल में माशा। गुस्सा चढ़ा नही कि किसी को नही छोड़ती और जैसे ही पारा उतर जाता है बदल जाती है। बेटी, सभी घरों में ऐसा ही होता है। जरूरत है तो बस इस बात की कि कोई एक ही भड़के... तभी घर टूटने से बचा रहेगा... उसके साथ मैं भी तू-तू मैं-मैं करूं तो बताओ इस घर मे क्या होगा... या तो वह इस घर मे रह जायेगी या फिर मैं ... फिर वह घर ही कैसा, जहां परिवार का प्रत्येक सदस्य हक से न रह सके। क्या तुम्हारे साथ जाकर रहना ही एकमात्र हल है ? अच्छा ,यह बताओ तुम्हारी सासू मां कहां है ? मां की नजरें जैसे मानसी के चेहरे के पास कुछ देखने की कोशिश करने लगी।
मानसी सकपका गयी थी । उसने बात बदलनी चाही पर मां की प्रश्नभरी नजरों को लांघ नही सकी, ' सासू मां तो अभी छोटी ननद के पास है... मैने कई बार कहा कि मेरे साथ रहिये पर वह मानती ही नही ...' मानसी का स्वर कमजोर पड़ गया।
' मैं अपनी बेटी के साथ रहूं, तुम्हारी सास अपनी बेटी के साथ रहे, उसकी सास अपनी बेटी के साथ रहे... आखिर यह सब क्या हो रहा है ? क्यो नही सास अपनी बहू को बेटी मानकर उसकी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ खुशी से रहे... फिर बहू ही क्यो नही सास को मां मान लेती ? बेटी, तुम लोग यह कैसी परंपरा की नींव डाल रही हो ? मां के शब्दों मे नीम-सा कसैलापन उतर चुका था।