Sunday 8 January 2012

लोककथा

                                                                         क्‍यों बोला

एक राजा था। उसके पास किसी चीज की कमी नही थी, सिवा औलाद के। एक दिन राजा शंकर भगवान के पास गया और बोला - 'भगवन! देवों के देव मेरे पास किसी चीज की कमी नही है। पर इन सबका उपभोग करने वाली औलाद ही मेरे पास नही है। आप मुझे आशीर्वाद दें कि‍ मुझे औलाद प्राप्‍त हो।'
     श्‍ांकर भगवान राजा से बोले - 'वत्‍स! तुम्‍हे और कुछ चाहिए तो बोलो। मैं तुम्‍हे सबकुछ दे सकता हूं परन्‍तु औलाद प्राप्ति का आशीर्वाद मैं नही दे सकता। हां, तुम नारद के पास जाओ। वे तुम्‍हे अवश्‍य ही औलाद प्राप्ति का आशीर्वाद देंगे।'
       राजा नारद मुनि के पास गया और अपनी इच्‍छा बतायी। उसकी इच्‍छा सुनकर नारद मुनि हंसते हुए बोले - 'राजन, मैं तो  रमता जोगी हूं। मैं  तो स्‍वयं ईश्‍वर की आराधना में लीन रहता हूं। भला मैं आशीर्वाद का आकांक्षी व्‍यक्ति किसी और को क्‍या आशीर्वाद दे सकूंगा। जगत के मालिक भगवान विष्‍णु के होते भला मैं क्‍या  किसी को आशीर्वाद दूंगा। तुम मेरे आराध्‍य देव भगवान विष्‍णु के पास जाओ। वे अवश्‍य तुम्‍हारी इच्‍छा की पूर्त्ति करेंगे।' 
       राजा भगवान विष्‍णु के पास गया और औलाद की प्राप्ति हेतु आशीर्वाद मांगा। उसकी इच्‍छा सुनकर भगवान विष्‍णु मंद-मंद मुस्‍कुराते हुए बोले - 'मैं तुम्‍हे कोई  भी आशीर्वाद नही दे सकता। क्‍योंकि यहां अभी लक्ष्‍मी जी विद्यमान नही है। जब तक वह मुझे मशविरा नही देती, मैं किसी को कुछ नही दे सकता। क्‍योंकि मेरे इस लोक की मालकिन तो वही हैं। हां, तुम अपने राज्‍य के साधु के पास जाओ। वह अवश्‍य तुम्‍हारी इच्‍छा-पूर्त्ति में सहायक होंगे। '
        राजा भगवान विष्‍णु को प्रणाम कर वापस अपने राज्‍य में आ गया। उसने अपनी रानी से कहा -  'महारानी, देवताओं ने तो मुझे औलाद प्राप्ति का आशीर्वाद नही दिया, लेकिन भगवान विष्‍णु ने कहा है कि मैं अपने राज्‍य के साधु के पास जाऊं। वे मुझे अवश्‍य औलाद-प्राप्ति का आशीर्वाद देंगे। हमलोग कल सुबह ही साधु महाराज के पास चलेंगे।'
       अगले दिन सुबह राजा-रानी साधु की कुटिया के पास पहुंचे। साधु महाराज आंखे बंद किए ध्‍यानमग्‍न थे। राजा-रानी ने नजदीक पहुंचकर उन्‍हें प्रणाम किया। साधु महाराज ने आंखें खोलकर उनसे वहां आने का कारण पूछा। तब राजा ने भगवान विष्‍णु से हुई पुरी बातचीत साधु को बतायी। यह सुनकर कि भगवान विष्‍णु ने स्‍वयं राजा को उसके पास भ्‍ोजा है, साधु की आंखों में दर्प आ गया। वह राजा से बोला - 'महाराज, मैं आपकी इच्‍छा की पुर्त्ति अवश्‍य करूंगा। मांगिये, आपको जो मांगना है।'
        रानी ने हाथ जोड़कर कातर स्‍वर में कहा - 'साधु महाराज, मुझे औलाद नही है। मुझे औलाद होने का वरदान दें।'
        साधु ने रानी को औलाद-प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। राजा-रानी खुशी-खुशी वापस लौट गये। उचित अन्‍तराल के पश्‍चात रानी ने एक पुत्र को जन्‍म दिया। परन्‍तु राजा का पुत्र गूंगा पैदा हुआ। राजा ने सब तरह का इलाज कराया पर बच्‍चा गूंगा ही रहा। एक दिन सिपाहियों के साथ राजा का पुत्र जंगल में शिकार खेलने  गया। कुछ सिपाही आगे और कुछ पीछे थे, जबकि एक सिपाही राजकुमार के साथ चल रहा था। तभी पेड़ पर बैठा मोर बोल पड़ा, राजकमारके साथ चल रहे सिपाही ने तीर से उस मोर को मार गिराया। मोर के जमीन पर गिरते ही राजकुमार बोल पड़ा - 'क्‍यों बोला ? '
         सिपाही ने राजकुमार को बोलते सुना तो वह चमत्‍कृत हो उठा। उसने खुशी-खुशी यह बात सबको बतायी। राज्‍य भर में खुशियां मनाई गई। परन्‍तु राजकुमार जंगल मे से आकर फिर मौन रहने लगा। सभी उसकी आवाज सुनने को बेताब थे। परन्‍तु राजकुमार ने फिर जो मुंह बंद किया तो लाख प्रयास के बाद भी नही खोला। तब राजा ने क्रोधित हो झूठ बोलने का आरोप लगाकर सिपा‍ही को जेल में डाल दिया।   
        राजा राजकुमार को लेकर उसी साधु की कुटिया पर गया, जिन्‍होंने उसे औलाद होने का वरदान दिया था। परन्‍तु कुटिया में साधु महाराज नही थे। वहां उनका शिष्‍य था। शिष्‍य राजा के साथ राजकुमार को प्रणाम करता है। राजकुमार को देखकर उसकी आंखें में आंसू आ गये। उसने राजा से पूछा - 'महाराज, आप इस कुटिया में क्‍यों आये हैं ?  अब आपको क्‍या चाहिए ? ' 
        राजा चिंतित स्‍वर में बोला- 'साधु महाराज, आपके गुरू के आशीर्वाद से मुझे औलाद तो मिली पर यह मेरा पुत्र बोल नही पाता। कृपाकर आप इसे कंठ दे दिजिए, जिससे कि यह बोल सके।'    
        साधु महाराज ने राजकुमार के पास आकर पूछा - 'गुरूदेव, आपने जब राजा के यहां पुत्र के रूप में जन्‍म ले ही लिया है तो फिर आप बोलते क्‍यों नही,  क्‍या बात है ? '
       राजकुमार बोला - 'शि‍ष्‍य, जब राजा मेरे पास आए थे तो यह जानकर कि राजा की इच्‍छापूर्त्ति मैं ही कर सकता हूं,  भगवान विष्‍णु नही, मैं घमंड मे आ गया। मैंने बिना कुछ सोचे-समझे राजा को पुत्र प्राप्ति का  आशीर्वाद दे दिया। राजा के जाने के बाद नारद मुनि मेरे पास आए और बोले कि राजा के भाग्‍य में तो पुत्रयोग ही नही है। इसीलिए किसी भी देवता ने उन्‍हे आशीर्वाद नही दिया बल्कि दूसरे के पास भेजते रहे। अब मैं कर भी क्‍या सकता था। मेरे पास एक ही उपाय था कि अब पुत्र के रूप में राजा के यहां मैं ही जन्‍म लूं। अगर मैं राजा को सोच-समझ कर आशीर्वाद देता तो मुझे उनके यहां जन्‍म न लेना पड़ता। तभी मैंने निश्‍चय किया कि इस जन्‍म में मैं नही बोलूंगा। मेरे घमंड की यही सजा है। मैं पहली बार तब बोला जब मोर को बोलने के कारण अपने प्राण गंवाने पडे़। जिस सिपाही ने मेरी आवाज सुनी, उसने भी बिना सोचे-समझे शोर कर दिया और उसे भी अपने बोलने के कारण ही जेल जाना पड़ा। इसलिए मनुष्‍य को जब भी बोलना पड़े, सोच-समझ कर कम बोलना चाहिए। '  

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