शहरयार साहब को हमारी ओर से ज्ञानपीठ पुरस्कार की ढेरों बधाई...
सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है।
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है।।
कितना सही कहा है शहरयार साहब ने , यहां लोगो को परेशान होने की एक नयी बीमारी लग गई है। साहित्य में भी कुएं का मेढ़क होना सही नही लगता। कवि हरिवंश राय बच्चन के सुपूत्र के हाथों पुरस्कार प्राप्त करने से कहां शहरयार साहब और पुरस्कार की गरिमा को धक्का लगता है ? अमिताभ अपने-आपमे एक ऐसी शख्िसयत हैं जिनकी उपस्थिति से माहौल गरिमामय हो जाता है। एक और रिश्ता भी इनमें नजर आता है, वह है फिल्मों का । जब वे फिल्मों के लिए गजल लिख सकते हैं तो फिल्मवालों के हाथो पुरस्कार क्यो नही ग्रहण कर सकते ? ये विरोध के स्वर यह चेतावनी देते है कि साहित्यकार के बच्चे साहित्यकार होंगे तभी उन्हें साहित्यकारों की जमात मे शामिल किया जायेगा अन्यथा नही।
कुछ गजलें आप सबों के लिए शहरयार साहब की...
जो बुरा था कभी वह हो गया अच्छा कैसे,
वक्त के साथ मैं इस तेजी से बदला कैसे।
इस मोड़ के आगे भी कई मोड़ है वर्ना
यूं मेरे लिए तू कभी ठहरा नही होता।
ये सफर वो है कि रुकने का मुकाम इसमे नही।
मैं जो थम जाऊं तो परछाईं को चलता देखूं।।
हमारी ओर से भी बधाई हो!
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आपका ब्लॉग फॉलो कर दिया हैं मैंने।
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