साधरण सी घटना
संजय ने घर में कदम रखते ही मां को हांक लगाई, '' मां, मां, कहां हो बड़े जोरो की भूख लगी है, खाना दो।''
तभी उसकी नजर मां पर गई। वह मां जो उसकी एक आवाज पर खाना परोस देती थी, अाज सिर पर हाथ धरे बैठी रही। उसकी आवाज मां पर बेअसर। वह मां के नजदीक पहुंचा, हिलाया-डुलाया। फिर भी सब बेकार। संजय घबरा गया। लगभग चिल्ला कर उसने पूछा, '' मां, बताओगी भी कि क्या हुआ कि ऐसे ही सिर पर हाथ रखे बैठी रहोगी। मैं चिंता से मरा जा रहा हूं। बताओ ना क्या बात है। ''
मां का सपाट स्वर गूंजा, '' तुम्हारा तो कोई दोस्त मर गया है फिर तुम्हे इतनी जोर से भूख क्यों लगी है। गाडि़यों में आग लगाकर तुम्हारी भूख शांत नही हुई।''
संजय ने आश्चर्य से पहले अपनी मां को देखा और फिर सिर झटक कर बोला, '' अरे मां, वह मेरा कोई दोस्त-वोस्त नही था। कॉलेज का एक लड़का था जिसे किसी गाड़ी ने कुचल दिया तो हमने भी कुछ गाडि़यों में अाग लगा दी, बस। और क्या।''
'' क्या मिला, दूसरे की गाड़ियों में आग लगाकर तुमलोगों को क्या मिला। क्या वह लड़का वापस आ गया। एक गाड़ी ने जाने-अनजाने में उसे कुचल दिया पर तुमलोगों ने तो न जाने कइयों को जान-बुझकर कुचल दिया। उनका क्या कुसूर था। तुमलोगों के गुस्से का खामियाजा बेकसूर लोगों को भुगतना पड़ा। इसका कोई हिसाब है तुम लोगों के पास। तुमलोगों ने जो आगजनी और पत्थरबाजी की उससे तुम्हे क्या मिला।'' मां का स्वर तेज होता गया और बोलते-बोलते वह हांफने भी लगी।
संजय मां को पकड़कर बोला, '' मां तु इतनी इमोशनल क्यों हो रही है। यह तो साधारण सी बात है। आजकल तो रोज ऐसा होता ही रहता है, कहीं न कहीं। चलो अब ये सब छोड़ो, मुझे खाना दो। बड़े जोरों की भूख लगी है।''
'' खाना नही बना है।'' मां का सपाट स्वर गूंजा
'' खाना नही बना है, क्यों। खाना क्यों नही बना है। '' संजय की अावाज में आश्चर्य के साथ-साथ थोड़ी-सी खीझ भी थी।
मां का तेज स्वर फिर गूंजा, '' जिससे चूल्हे में आग जलती थी उसे तो तुम आग के हवाले करके आए हो। जब तुम अपने दोस्तों के साथ यह साधारण्ा कारणामा कर रहे थे उस समय तुम्हारे बाबू जी भी अपनी ऑटो के साथ वहीं थे, जिसे उन्होंने कुछ दिन पहले ही लोन लेकर खरीदा था। वह तुम्हारी ओर दौड़े भी लेकिन तुम भीड़ के साथ घटिया कार्य में ऐसे मश्ागूल थे कि तुम्हारे कानों तक अपने बाबूजी की चीखें नही पहुंची। उनकी आंखों के सामने तुम सबने उनके सपने में आग लगा दी और आंखों का सपना जो सच हो गया था उसे तुमलोगों ने जलाकर खाक कर दिया।''
अब सिर पर हाथ रखने की बारी संजय की थी।चेहरे पर पश्चाताप और आंखों में आंसू तैर रहे थे जो कि उस लड़के के मरने पर भी उसकी आंखों में नही आए थे।
संजय ने घर में कदम रखते ही मां को हांक लगाई, '' मां, मां, कहां हो बड़े जोरो की भूख लगी है, खाना दो।''
तभी उसकी नजर मां पर गई। वह मां जो उसकी एक आवाज पर खाना परोस देती थी, अाज सिर पर हाथ धरे बैठी रही। उसकी आवाज मां पर बेअसर। वह मां के नजदीक पहुंचा, हिलाया-डुलाया। फिर भी सब बेकार। संजय घबरा गया। लगभग चिल्ला कर उसने पूछा, '' मां, बताओगी भी कि क्या हुआ कि ऐसे ही सिर पर हाथ रखे बैठी रहोगी। मैं चिंता से मरा जा रहा हूं। बताओ ना क्या बात है। ''
मां का सपाट स्वर गूंजा, '' तुम्हारा तो कोई दोस्त मर गया है फिर तुम्हे इतनी जोर से भूख क्यों लगी है। गाडि़यों में आग लगाकर तुम्हारी भूख शांत नही हुई।''
संजय ने आश्चर्य से पहले अपनी मां को देखा और फिर सिर झटक कर बोला, '' अरे मां, वह मेरा कोई दोस्त-वोस्त नही था। कॉलेज का एक लड़का था जिसे किसी गाड़ी ने कुचल दिया तो हमने भी कुछ गाडि़यों में अाग लगा दी, बस। और क्या।''
'' क्या मिला, दूसरे की गाड़ियों में आग लगाकर तुमलोगों को क्या मिला। क्या वह लड़का वापस आ गया। एक गाड़ी ने जाने-अनजाने में उसे कुचल दिया पर तुमलोगों ने तो न जाने कइयों को जान-बुझकर कुचल दिया। उनका क्या कुसूर था। तुमलोगों के गुस्से का खामियाजा बेकसूर लोगों को भुगतना पड़ा। इसका कोई हिसाब है तुम लोगों के पास। तुमलोगों ने जो आगजनी और पत्थरबाजी की उससे तुम्हे क्या मिला।'' मां का स्वर तेज होता गया और बोलते-बोलते वह हांफने भी लगी।
संजय मां को पकड़कर बोला, '' मां तु इतनी इमोशनल क्यों हो रही है। यह तो साधारण सी बात है। आजकल तो रोज ऐसा होता ही रहता है, कहीं न कहीं। चलो अब ये सब छोड़ो, मुझे खाना दो। बड़े जोरों की भूख लगी है।''
'' खाना नही बना है।'' मां का सपाट स्वर गूंजा
'' खाना नही बना है, क्यों। खाना क्यों नही बना है। '' संजय की अावाज में आश्चर्य के साथ-साथ थोड़ी-सी खीझ भी थी।
मां का तेज स्वर फिर गूंजा, '' जिससे चूल्हे में आग जलती थी उसे तो तुम आग के हवाले करके आए हो। जब तुम अपने दोस्तों के साथ यह साधारण्ा कारणामा कर रहे थे उस समय तुम्हारे बाबू जी भी अपनी ऑटो के साथ वहीं थे, जिसे उन्होंने कुछ दिन पहले ही लोन लेकर खरीदा था। वह तुम्हारी ओर दौड़े भी लेकिन तुम भीड़ के साथ घटिया कार्य में ऐसे मश्ागूल थे कि तुम्हारे कानों तक अपने बाबूजी की चीखें नही पहुंची। उनकी आंखों के सामने तुम सबने उनके सपने में आग लगा दी और आंखों का सपना जो सच हो गया था उसे तुमलोगों ने जलाकर खाक कर दिया।''
अब सिर पर हाथ रखने की बारी संजय की थी।चेहरे पर पश्चाताप और आंखों में आंसू तैर रहे थे जो कि उस लड़के के मरने पर भी उसकी आंखों में नही आए थे।